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Thursday 22 September 2011
जख्म महोब्बत के पुराने नहीं
अंगूर की बेटी के जो दीवाने नहीं
वो लोग महफ़िल में बुलाने नहीं
कल के टूटते आज ही टूट जाएँ
झूठे रिश्ते नाते हमें निभाने नहीं
जिंदगी का नशा वो क्या जाने
जिसने उठाकर देखें पैमाने नही
समझ सकता हूँ कजरारी आँखें
इनसे बढ़कर कहीं मयखाने नही
इतना तो तय है सितमगर के
साँझ ढलते ही ख्वाब आने नहीं
कल का ही तो वाक्यात है बेचैन
जख्म महोब्बत के पुराने नहीं
वो लोग महफ़िल में बुलाने नहीं
कल के टूटते आज ही टूट जाएँ
झूठे रिश्ते नाते हमें निभाने नहीं
जिंदगी का नशा वो क्या जाने
जिसने उठाकर देखें पैमाने नही
समझ सकता हूँ कजरारी आँखें
इनसे बढ़कर कहीं मयखाने नही
इतना तो तय है सितमगर के
साँझ ढलते ही ख्वाब आने नहीं
कल का ही तो वाक्यात है बेचैन
जख्म महोब्बत के पुराने नहीं
Wednesday 24 August 2011
संकट और क्रोध
एक बार बलदेव, वासुदेव और सात्यकि किसी महावन में भटक गए। उन तीनों मित्रों को भटकते-भटकते शाम हो गई। अंधेरा बढ़ता जा रहा था। अब रास्ता तो दिखता नहीं, सो तीनों ने रात एक बड़े से वृक्ष के नीचे बिताने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय हुआ कि तीनों में से दो सोएंगे और एक पहरा देगा। वन के खतरों से बचने के लिए यह उपाय किया गया था।
सबसे पहले जागने की बारी सात्यकि की थी। वह वीरासन मुद्रा में पहरा देने के लिए बैठ गया। रात का पहला पहर शुरू हो चुका था। बलदेव और वासुदेव गहरी नींद सो चुके थे। तभी उस सघन वृक्ष से एक पिशाच प्रकट हुआ। उसने सात्यकि से कहा - ‘मुझे बहुत ज़ोर से भूख लगी है। मैं तुम्हें छोड़कर इन दोनों को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहता हूं।’
‘तुझे अपने प्राण बचाने हैं, तो तुरंत यहां से भाग जा वरना मारते-मारते तेरा भुर्ता बना दूंगा’, पिशाच की बात सुनकर गुस्से में उबलते हुए सात्यकि ने कहा।
पिशाच ने बड़े सामान्य लहज़े में कहा - ‘तू नहीं जानता कि क्या कह रहा है। चल लड़ना है न, तो आ जा।’
इतना कहते ही पिशाच सत्याकि से भिड़ गया। सत्याकि को पिशाच की इस चुनौती पर बेहद क्रोध आ रहा था। वह गुस्से से लाल-पीला होते हुए उस पर हमला कर रहा था, पर पिशाच का पलड़ा भारी था। सत्याकि को उसने उठा-उठाकर खूब पटका और मारा।
जैसे ही रात का पहला पहर खत्म होने का हुआ, पिशाच खुद ब खुद गायब हो गया। मार के कारण कमज़ोरी में सत्याकि बेहोशों जैसा सो गया। अब जैसा कि निश्चय किया गया था, उठने की बारी बलदेव की थी। वह उठा, तो सत्याकि को सोता देखकर हैरान हुआ और उसकी बदहाली पर आश्चर्यचकित भी। फिर उसने सोचा कि उसके उठने पर पूरा माजरा जानेगा। जैसे ही रात्रि का दूसरा पहर शुरू हुआ, पिशाच फिर प्रकट हो गया।
उसने बलदेव से भी वही कहा, जो सत्याकि से कहा था। बलदेव ने पिशाच को कसकर डांट पिलाई - ‘अपनी खैरियत चाहता है, तो भाग जा। मारते-मारते तेरा कचूमर बना दूंगा।’ सुनकर पिशाच ने हंसते हुए कहा - ‘अभी तेरे एक मित्र को सबक सिखाया था। वो भी तेरी तरह ही अकड़ रहा था। देख उसकी क्या हालत बनाई है। लगता है, तू भी उसकी तरह पिटे बिना नहीं मानेगा।’
अब बलदेव की समझ में आया कि सत्याकि की ऐसी हालत कैसे हुई। सारी बात समझ में आते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह पिशाच को ललकारते हुए उससे भिड़ गया। जैसे-जैसे उसका क्रोध बढ़ता गया, पिशाच का आकार भी बढ़ता गया। वह उसको उठा-उठाकर पटकने लगा। दूसरा पहर खत्म होने तक लड़ाई खत्म नहीं हुई और पिशाच गायब हो गया। जमकर हुई लड़ाई के कारण घायल और थके हुए बलदेव ने अब वासुदेव को जगाया।
वासुदेव बलदेव की यह हालत देखकर पूछने लगा - ‘क्या हुआ तुम्हें? किसने घायल किया?’ बलदेव कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं था। वह लेटा और आधी मूर्छा और आधी नींद में चला गया।
वासुदेव को ज्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी। तीसरे पहर के आरंभ में पिशाच फिर प्रकट हुआ और उसने वही बात दोहराकर सब साफ कर दिया। जैसे ही उसने वासुदेव के मित्रों को खाने की बात कही, वह हंस पड़ा। बोला- ‘भाई तुम भी खूब हो। ठीक वक्त पर आए हो। एक तो मेरी नींद पूरी हो चुकी है, सो व्यायाम करने का मन था और दूसरे तुम्हारे साथ कुश्ती लड़ने में वक्त भी अच्छा कट जाएगा। आलस्य भी नहीं रहेगा। चलो शुरू करें फिर।’
इतना सुनना था कि पिशाच के क्रोध का पारावार नहीं रहा। वह दांत पीसता वासुदेव की ओर बढ़ा, तो वासुदेव ने हंसकर कहा - ‘वाह, तुम तो वार करने में निपुण मालूम होते हो, पर तुम्हारा कद क्यों घट रहा है?’
पिशाच को भी गुस्सा आ रहा था कि उसका कद घट रहा है। वह गुस्से में हमला करता, वासुदेव गुलाटी खाकर खुद को बचा जाता और मुस्कुरा देता। धीरे-धीरे पिशाच का कद बेहद कम हो गया। अब वह कीड़े जितना छोटा हो चुका था। वासुदेव ने उसे उठाकर अपने रूमाल के किनारे पर बांध लिया।
सुबह दोनों मित्र उठे और उन्होंने वासुदेव को अपने रात के अनुभव के बारे में बताया। वासुदेव ने अपने रूमाल के सिरे को खोलकर उन्हें दिखाते हुए पूछा - ‘क्या यही है वो पिशाच?’ वो दोनों आश्चर्यचकित हो गए। ‘तुमने कैसे किया यह?’ वासुदेव ने कहा - ‘यह संकट है। इसका सामना जितना हंसकर और सहज रहकर करोगे, यह उतना ही छोटा होता जाएगा और तुम आसानी से उस पर काबू पा लोगे। क्रोध हमारा शत्रु है। क्रोध करोगे, तो संकट बढ़ता जाएगा। तुम्हारी शक्ति क्षीण होती जाएगी। अब समझे, कि यह कैसे इतना छोटा हो गया?’
दोनों मित्रों ने मुस्कुराकर सिर हिलाया।
सबसे पहले जागने की बारी सात्यकि की थी। वह वीरासन मुद्रा में पहरा देने के लिए बैठ गया। रात का पहला पहर शुरू हो चुका था। बलदेव और वासुदेव गहरी नींद सो चुके थे। तभी उस सघन वृक्ष से एक पिशाच प्रकट हुआ। उसने सात्यकि से कहा - ‘मुझे बहुत ज़ोर से भूख लगी है। मैं तुम्हें छोड़कर इन दोनों को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहता हूं।’
‘तुझे अपने प्राण बचाने हैं, तो तुरंत यहां से भाग जा वरना मारते-मारते तेरा भुर्ता बना दूंगा’, पिशाच की बात सुनकर गुस्से में उबलते हुए सात्यकि ने कहा।
पिशाच ने बड़े सामान्य लहज़े में कहा - ‘तू नहीं जानता कि क्या कह रहा है। चल लड़ना है न, तो आ जा।’
इतना कहते ही पिशाच सत्याकि से भिड़ गया। सत्याकि को पिशाच की इस चुनौती पर बेहद क्रोध आ रहा था। वह गुस्से से लाल-पीला होते हुए उस पर हमला कर रहा था, पर पिशाच का पलड़ा भारी था। सत्याकि को उसने उठा-उठाकर खूब पटका और मारा।
जैसे ही रात का पहला पहर खत्म होने का हुआ, पिशाच खुद ब खुद गायब हो गया। मार के कारण कमज़ोरी में सत्याकि बेहोशों जैसा सो गया। अब जैसा कि निश्चय किया गया था, उठने की बारी बलदेव की थी। वह उठा, तो सत्याकि को सोता देखकर हैरान हुआ और उसकी बदहाली पर आश्चर्यचकित भी। फिर उसने सोचा कि उसके उठने पर पूरा माजरा जानेगा। जैसे ही रात्रि का दूसरा पहर शुरू हुआ, पिशाच फिर प्रकट हो गया।
उसने बलदेव से भी वही कहा, जो सत्याकि से कहा था। बलदेव ने पिशाच को कसकर डांट पिलाई - ‘अपनी खैरियत चाहता है, तो भाग जा। मारते-मारते तेरा कचूमर बना दूंगा।’ सुनकर पिशाच ने हंसते हुए कहा - ‘अभी तेरे एक मित्र को सबक सिखाया था। वो भी तेरी तरह ही अकड़ रहा था। देख उसकी क्या हालत बनाई है। लगता है, तू भी उसकी तरह पिटे बिना नहीं मानेगा।’
अब बलदेव की समझ में आया कि सत्याकि की ऐसी हालत कैसे हुई। सारी बात समझ में आते ही उसका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। वह पिशाच को ललकारते हुए उससे भिड़ गया। जैसे-जैसे उसका क्रोध बढ़ता गया, पिशाच का आकार भी बढ़ता गया। वह उसको उठा-उठाकर पटकने लगा। दूसरा पहर खत्म होने तक लड़ाई खत्म नहीं हुई और पिशाच गायब हो गया। जमकर हुई लड़ाई के कारण घायल और थके हुए बलदेव ने अब वासुदेव को जगाया।
वासुदेव बलदेव की यह हालत देखकर पूछने लगा - ‘क्या हुआ तुम्हें? किसने घायल किया?’ बलदेव कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं था। वह लेटा और आधी मूर्छा और आधी नींद में चला गया।
वासुदेव को ज्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ी। तीसरे पहर के आरंभ में पिशाच फिर प्रकट हुआ और उसने वही बात दोहराकर सब साफ कर दिया। जैसे ही उसने वासुदेव के मित्रों को खाने की बात कही, वह हंस पड़ा। बोला- ‘भाई तुम भी खूब हो। ठीक वक्त पर आए हो। एक तो मेरी नींद पूरी हो चुकी है, सो व्यायाम करने का मन था और दूसरे तुम्हारे साथ कुश्ती लड़ने में वक्त भी अच्छा कट जाएगा। आलस्य भी नहीं रहेगा। चलो शुरू करें फिर।’
इतना सुनना था कि पिशाच के क्रोध का पारावार नहीं रहा। वह दांत पीसता वासुदेव की ओर बढ़ा, तो वासुदेव ने हंसकर कहा - ‘वाह, तुम तो वार करने में निपुण मालूम होते हो, पर तुम्हारा कद क्यों घट रहा है?’
पिशाच को भी गुस्सा आ रहा था कि उसका कद घट रहा है। वह गुस्से में हमला करता, वासुदेव गुलाटी खाकर खुद को बचा जाता और मुस्कुरा देता। धीरे-धीरे पिशाच का कद बेहद कम हो गया। अब वह कीड़े जितना छोटा हो चुका था। वासुदेव ने उसे उठाकर अपने रूमाल के किनारे पर बांध लिया।
सुबह दोनों मित्र उठे और उन्होंने वासुदेव को अपने रात के अनुभव के बारे में बताया। वासुदेव ने अपने रूमाल के सिरे को खोलकर उन्हें दिखाते हुए पूछा - ‘क्या यही है वो पिशाच?’ वो दोनों आश्चर्यचकित हो गए। ‘तुमने कैसे किया यह?’ वासुदेव ने कहा - ‘यह संकट है। इसका सामना जितना हंसकर और सहज रहकर करोगे, यह उतना ही छोटा होता जाएगा और तुम आसानी से उस पर काबू पा लोगे। क्रोध हमारा शत्रु है। क्रोध करोगे, तो संकट बढ़ता जाएगा। तुम्हारी शक्ति क्षीण होती जाएगी। अब समझे, कि यह कैसे इतना छोटा हो गया?’
दोनों मित्रों ने मुस्कुराकर सिर हिलाया।
Wednesday 20 July 2011
ये कोई सौदा नहीं है कोई समझौता नहीं
एक अरसा हो गया है, बेधड़क सोता नहीं
दिल भरा बैठा हुआ है टूट कर रोता नहीं
किसे कहते हाले दिल किसको सुनाते दास्ताँ
कफ़स का पहलू कोई दीवार सा होता नहीं
दूर हो कर भी मरासिम इस तरह ज़िंदा रहे
मै इधर जागूँ अगर तो वो उधर सोता नहीं
इश्क हो तो खुद-ब-खुद हस्सास लगती है फिजाँ
कोई दरिया, पेड़, बादल चाँदनी बोता नहीं
तुम हमें चाहो न चाहो हम तुम्हारे हैं सदा
ये कोई सौदा नहीं है कोई समझौता नहीं
जिसका दर छोड़ दिया उस को भुलाऊं कैसे?
रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?
तू बुरा है, मुझे ये कह के उसने छोड़ दिया
थामा उम्मीद का यूँ हाथ कि मरोड़ दिया
मैंने भी कांच से पत्थर का वो घर तोड़ दिया
रखा हथेली पे यादों का शहर, तोड़ दिया
लेकिन अब सोचता हूँ न शहर बचा न है घर
जाए जो तनहा मुसाफिर, तो अब ये जाए किधर?
इस बयाबां में अब न तू है, न मैं मिलता हूँ
अपना साया हूँ खुद को ढूँढने निकलता हूँ
तुझसे नाराज़ हूँ मैं, खुद से भी नाराज़ हूँ मैं
नाम न लेता मेरा, जैसे हसीं राज़ हूँ मैं
नाम उसका मैं फिर से होठों पे लाऊं कैसे?
रूठी उम्मीद को बोलो मैं मनाऊं कैसे?
रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?
अब शहर शहर भटकता हूँ, तुझ से दूर हूँ मैं
तू ही कहती थी ना मुझसे, तेरा नासूर हूँ मैं
मुझको ना छूना तू, कि अब ज़हर में चूर हूँ मैं
मैं तो पागल फकीर हूँ, तेरा फितूर हूँ मैं
मैं तो वो ज़ख्म हूँ तेरा जो ना भरेगा कभी
मैं परिंदा हूँ जो सूरज से जल मरेगा कभी
फिर भी दो बूँद तू आंसू के ना धरेगा कभी
मुझको खोने का तू अफ़सोस ना करेगा कभी
मुझको मालूम है ये सब, है फिर भी इतना पता
सिवाय तेरे मेरे दिल में और था ही क्या?
राज़ इतना सा है, खुद से ये छुपाऊं कैसे?
छोड़ना चाहूँ तुझे, छोड़ के जाऊं कैसे?
रात से याद के काजल को
मिटाऊं कैसे?
जिसका दर छोड़ दिया उस को
भुलाऊं कैसे?
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